
नई दिल्ली:- जनगणना 2027 की गजट अधिसूचना में देरी और उसमें जातिगत तथा आदिवासी धर्म की स्पष्ट मान्यता का अभाव अब राजनीतिक और सामाजिक बहस का केंद्र बन चुका है। आलोचक इसे आदिवासी समुदायों की पहचान, उनके सांस्कृतिक अस्तित्व और संवैधानिक अधिकारों की खुली उपेक्षा मान रहे हैं।
पूर्व में सरकार ने यह संकेत दिए थे कि आगामी जनगणना में जातिगत गणना के साथ-साथ आदिवासी समुदायों की धार्मिक मान्यताओं को उचित स्थान दिया जाएगा। परंतु हाल में जारी अधिसूचना इस मोर्चे पर पूरी तरह चुप है। न तो इसमें जाति आधारित विवरण की बात की गई है, और न ही आदिवासी धर्म या आस्था प्रणाली को लेकर कोई स्पष्टता दिखाई देती है।
जनगणना में वर्तमान में छह धर्मों — हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध और जैन — के कॉलम होते हैं। इसके अलावा “अन्य धार्मिक विश्वास (ORP)” नामक एक अस्पष्ट श्रेणी दी जाती है, जिसमें आदिवासी समुदायों की मान्यताओं को दर्ज करने का एकमात्र विकल्प बचता है। यह अनौपचारिक विकल्प, संवैधानिक अनुच्छेद 25 में वर्णित धार्मिक स्वतंत्रता की भावना के सीधे खिलाफ है।
विशेषज्ञों और अधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि आदिवासी धर्मों की विविधता और विशिष्टता को “अन्य” की श्रेणी में समेटना न केवल अनुचित है, बल्कि संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन भी है।
2011 की जनगणना में भारत की 10.43 करोड़ आदिवासी आबादी में से केवल 79 लाख लोगों ने ORP कॉलम में अपनी धार्मिक पहचान दर्ज की थी। यह दर्शाता है कि अधिकांश आदिवासी समुदाय या तो गलत पहचान दर्ज करने को मजबूर हुए या उन्हें उनकी धार्मिक पहचान को व्यक्त करने का मौका ही नहीं मिला।
हालांकि झारखंड, मध्य प्रदेश और ओडिशा जैसे राज्यों में आदिवासी संगठनों द्वारा चलाए गए जागरूकता अभियानों से ORP कॉलम के तहत “सरना”, “गोंड धर्म” जैसे नामों में दर्ज आंकड़ों में इजाफा जरूर हुआ, जो इस बात का प्रमाण है कि यदि स्पष्ट कॉलम दिया जाए तो आदिवासी अपने धर्म को दर्ज करने को तत्पर हैं।
आदिवासी समुदायों का कहना है कि धार्मिक पहचान के साथ संवैधानिक सुरक्षा जुड़ी हुई है। संविधान की पांचवीं और छठवीं अनुसूचियाँ, और अनुच्छेद 371-ए और 371-बी जैसे प्रावधान आदिवासी रीति-रिवाजों, परंपराओं और मान्यताओं की सुरक्षा सुनिश्चित करते हैं। इसलिए जनगणना में उनकी आस्था प्रणाली का समावेश केवल सामाजिक मान्यता नहीं, संवैधानिक उत्तरदायित्व है।
जनगणना में आदिवासी धर्म की मान्यता की मांग का राजनीतिक पक्ष भी है। हिंदुत्ववादी संगठनों द्वारा “वनवासी” शब्दावली का उपयोग, घर वापसी अभियान, और आदिवासियों की मान्यताओं को हिंदू धर्म से जोड़ने के प्रयास, इन सभी को आदिवासी संगठनों ने संस्कृति और पहचान पर हमले के रूप में देखा है।
आरएसएस और उससे जुड़े संगठनों द्वारा सरकारी स्कूलों, ईएमआर स्कूलों और गांवों में धार्मिक प्रचार, मंदिर निर्माण और धार्मिक प्रतीकों के ज़रिए एक सांस्कृतिक वर्चस्व स्थापित करने की रणनीति पर भी सवाल उठ रहे हैं।
झारखंड सरकार ने 2020 में विधानसभा में सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित किया था, जिसमें “सरना धर्म” को जनगणना में अलग कॉलम के रूप में शामिल करने की मांग की गई थी। यह प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेजा गया, लेकिन अब तक उस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं आई। अब जब 2021 की जनगणना 2027 में होने जा रही है, तो यह मुद्दा फिर से केंद्र में है।
इस संदर्भ में विभिन्न आदिवासी संगठनों और सामाजिक समूहों की यह मांग जोर पकड़ रही है कि जनगणना 2027 में “आदिवासी/जनजातीय धर्म” के नाम से एक स्वतंत्र कॉलम जोड़ा जाए, जिससे भारत के करीब 700 आदिवासी समुदायों को अपनी विशिष्ट पहचान दर्ज करने का अवसर मिले।
जनगणना सिर्फ आंकड़ों की प्रक्रिया नहीं होती, यह पहचान, प्रतिनिधित्व और नीति निर्माण का आधार होती है। यदि इसमें आदिवासी धर्मों को स्पष्ट मान्यता नहीं दी जाती, तो यह न सिर्फ ऐतिहासिक गलतियों की पुनरावृत्ति होगी, बल्कि यह देश के सबसे मूलनिवासी समुदायों के साथ एक गंभीर अन्याय भी होगा। अब ज़रूरत है कि सरकार, राजनीतिक दल, और समाज इस मांग को गंभीरता से लें और जनगणना को वास्तव में समावेशी और न्यायपूर्ण बनाने की दिशा में कदम उठाएं।
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